बकरी (GOAT)
सभी प्रकार की जलवायु एवं परिस्थतियों में अपने को अनुकूलित कर लेने वाली वकरी एक बहुपयोगी पशु है। इसके पालन पोषण पर बहुत कम खर्च आता है अतएव इन्हें गरीबों की गाय कहा जाता है। इनके दूध में वसा कण छोटे छोटे होते हैं। अतएव यह सुपाच्य होता है। इसके दूध में लोहा, पोटैशियम आदि लवण गाय के दूध से अधिक पाये जाते हैं।
लोहा तो इसके दूध में गाय के दूध से 9-10 गुना अधिक होता है। बकरी का दूध औषधि के रूप में भी उपयोग में लाया जाता है। पेट, जिगर, तपेदिक, अलसर, अतिसार के मरीजों को बकरी का दूध पीने की डाक्टर सलाह देते हैं। क्षय रोगियों को तो यह दवा के रूप में दिया जाता है। गर्भवती महिलाओं के लिये यह और भी उपयोगी है।
बकरी का मांस स्वादिष्ट एवं पुष्टकारी होता है। विश्व में बकरियों की संख्या 446 लाख है जिसमें से 350 लाख उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र में पायी जाती हैं। भारत में विश्व की कुल बकरियों की 20% जनसंख्या रहती है। भारत में राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा बिहार एवं मध्य प्रदेश में कुल बकरियों की 40% पायी जाती हैं। विश्व में बकरी की संख्या के हिसाब से भारत का अफ्रीका के बाद दूसरा स्थान है।
प्रजनन
सामान्य तौर पर प्रजनन के लिए अच्छे. पैतृक गुणों वाले स्वस्थ बकरे का इस्तेमाल करना चाहिए। प्रजनन के लिए शीतकाल एवं बसन्त ऋतु सबसे उपयुक्त होता है। बकरी 18-21 दिन पर गर्मी (ऋतुमयी) में आती है। ऋतुमयी अवस्था में वह बेचैन रहती है तथा पूँछ हिलाती रहती है। उनके जननांग सूज जाते हैं और गुलाबी रंग के दिखते हैं। बकरियाँ बार-बार पेशाव करती हैं और उनके जननांग से श्लेष्मा निकलता है।
गर्मी में आने के दूसरे दिन गर्भाधान कराना चाहिए। पहला गर्भाधान बकरी को 10 – 15 महीने तक करा देना चाहिए | बकरी का गर्भकाल 150 दिन होता है। सामान्यतया बकरी 18 महीने में दो बार बच्चे देती हैं। प्रायः बकरियाँ 2 से 3 बच्चे एक बार में देती है पर कभी-कभी 4 से 5 तक भी बच्चे देती हैं पर ऐसे मेमने कमजोर होते हैं। मेमने को आयरोमाइसीन तथा टेरामाइसीन देने से उन्हें परजीवी बीमारियों से बचाया जा सकता है और उनका स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है।
बकरियों पर अखिल भारतीय समन्वित शोध कार्यक्रम (All India Co-ordinated Research Project on Goats) –
भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद ने 1971 में उच्च उत्पादकता विशेषकर माँस, दूध एवं ऊन देने वाली बकरियों के विकास हेतु यह परियोजना शुरू की। प्रारम्भ में ऊन एवं दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए पांच केन्द्र स्थापित किए गये। बाद में चार और केन्द्र मांस उत्पादन बढ़ाने के लिए खोली गयीं। दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए दो और केन्द्र बीकानेर (राजस्थान) एवं म्हो (मध्य प्रदेश) में स्थापति किए जाने का प्रस्ताव है।
बकरियों पर अनुसंधान हेतु केन्द्रीय संस्थान (Central Institute for Research on Goats)-
यह संस्थान आगरा-मथुरा राजमार्ग पर मख्दुम नामक स्थान पर स्थापित किया गया है। 1979 में इसे पूर्ण संस्थान का दर्जा मिल गया। इसका उद्देश्य उत्तम नस्ल की बकरियों का विकास एवं प्रबन्ध करना है। साथ ही यह संस्थान बकरियों की बीमारी, चारा प्रबन्ध, भ्रूण संरक्षण आदि विषयों पर शोधरत है। इसके मुख्य उद्देश्य हैं बकरियों से कम लागत पर एवं कम समय में अधिक बाल, दूध एवं मांस प्राप्त करना।
विदेशी नस्ल-बकरियों की प्रमुख विदेशी नस्ल निम्नवत् हैं-
(1) टोमेन्वर्ग –
इसका मूल स्थान उत्तर पूर्वी स्विट्जरलैंड की टोगेन्वर्ग घाटी माना जाता है। यह सामान्य तौर पर दूध के लिए पाली जाती है। यह विभिन्न जलवायु में रहने योग्य बकरी है। यह प्रति दिन 5.5 किग्रा. तक दूध देती है।
(2) खोरसानी
इसका जन्म स्थान दक्षिण अफगानिस्तान, विशेषकर खोरसान का क्षेत्र माना जाता है। यह पूर्वी सामान्य तौर पर ऊन उत्पादन के लिए पाली जाती है। ऊन उत्पादन प्रति भेड़ लगभग 1.89 से 2.26 किग्रा. होता है। ऊन लम्बा एवं धुंघराला होता है। इसका उपयोग मांस के लिए भी किया जाता है।
(3) बलुची –
इसका मूल स्थान बलुचिस्तान का कालट प्रांत का बोलन जिला है। इनका ऊन लम्बा एवं मोटा होता है। यह अकाल एवं सूखा को सहन करने में सक्षम होती हैं। इनका मांस सर्वश्रेष्ठ होता है। यह द्विकाजी नस्ल है। यह प्रति दिन 1.3 से 1.8 किग्रा. दूध देती हैं।
(4) एंग्लो-नुविधन (दूध)-
इसका जन्म-स्थान ब्रिटेन है। इसे बकरी की दुनिया में जर्सी कहते हैं।